
ये कहानी ना ही मेरी है, ना ही आपकी,
ना किसी लड़के की ना किसी लड़की की।
ये कहानी है हर उस जन की
जिसने अपनी जिंदगी के साल, गुजारे हैं,
समाज के उन दायरों और कानूनों के साथ,
जो हमें ऐसी जंजीरों में जकड़ देते हैं,
जहां से निकलना आसान नहीं।
ये हमें सिखाते हैं कि हम अपनी जिंदगी कैसे जिएं।
कौन सा रंग लड़कों का है, कौन सा लड़कियों का?
क्यों गुड़ियों से खेलना सिर्फ लड़कियों को शोभा देता है लड़कों को नहीं?
क्यों लड़के आजाद परिंदे और लड़कियां कांच की गुड़िया?
क्यों घर का चिराग है लड़का और घर की इज्ज़त लड़की?
क्यों ये समाज हमें बताए घर आना 8 बजे तक safe है?
कौन ये तय करे की हम शादी कब करें?
क्यों अगर प्यार में हम एक बार fail हो जाएं तो arranged marriage ही अच्छी है?
क्यों लड़के मर्दानगी ना दिखाए तो वो लड़के नहीं?
क्यों लड़कियां शर्माएं नहीं तो वो लड़की नहीं?
क्यों doctor और engineer ही बनना अच्छा है?
Painter और singer नहीं।
क्यों कोई और हमें सिखाए की हम जिए तो जिएं कैसे?
क्यों ‘ लोग क्या कहेंगे?’ ज्यादा important है अपनी ही खुशियां से?
क्या हम बांट सकते हैं समाज को दो हिस्सों में?
ऐसे दो हिस्सों में जो अधूरे हैं एक दूसरे के बिना
क्या लड़का और लड़की कह देना काफी है?
उन जज़्बातों को बयान करने के लिए
जो ना जाने कब से कैद हैं
इस समाज नाम के पिंजरे में।